स्वर्ण वैदही प्रजाति से मखाने की उपज बढ़ी, जीआई टैग से किसानों को व्यापार बढ़ाने में मिलेगी मदद

मखाना का 90 फीसदी उत्पादन बिहार में ही होता है। इसे फ़सलों का काला हीरा भी कहा जाता है क्योंकि काले खोल के अंदर से सफेद मखाना निकलता है। इसके औषधीय गुणों के कारण, यह महंगे ड्राईफ्रूट्स जैसी ऊंची क़ीमत पर  बिकता है

बिहार के मिथिलांचल की पहचान मखाना फसल से जुड़ी हुई है। हाल ही में मखाना को जियोग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) टैग दे दिया गया है, और अब मखाना मिथिला मखाना के रूप में जाना जाएगा। मखाना का 90 फीसदी उत्पादन बिहार में ही होता है। इसे फ़सलों का काला हीरा भी कहा जाता है क्योंकि काले खोल के अंदर से सफेद मखाना निकलता है। इसके औषधीय गुणों के कारण, यह महंगे ड्राईफ्रूट्स जैसी ऊंची क़ीमत पर  बिकता है।

इस संबंध रूरल वॉयस ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के मखाना अनुसंधान केंद्र, दरभंगा, बिहार  के पूर्व  हेड डॉ. विनोद कुमार गुप्ता से बात की। उन्होंने मखाने की पहली प्रजाति स्वर्ण वैदेही की खोज में महत्व पूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने बताया कि पहले  स्वर्ण वैदही प्रजाति से मखाना की उपज  बढ़ी है। अब जीआई टैग  मिलने से  मिथिला किसानों का व्यापार बढ़ेगा। डॉ. गुप्ता ने कहा कि इस संबंध में पिछले साल नवंबर में ऑनलाइन बैठक हुई थी। मखाना को अब जीआई टैग मिलने से मिथिला क्षेत्र के मखाना उत्पादकों और व्यवसायियों को काफी फायदा होगा। अब पूरी दुनिया में जहां भी मखाना जाएगा वहां मिथिला का नाम रहेगा। जीआई टैग मिलने से मखाना पर मिथिला की जो पहचान और अधिकार है वह कायम रहेगा।

डॉ. विनोद कुमार गुप्ता ने कहा कि मखाना उत्पादकों को अब अपने उत्पादों की बेहतर कीमत मिल सकेगी। मिथिला का मखाना किसानों की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के साथ-साथ रोजगार भी प्रदान करेगा। उन्होंने कहा कि मखाना की मांग देश के साथ साथ विदेशों में भी है। इसकी मांग अमेरिका, यूरोप औऱ अरब देशो में ज्यादा हैं। यह विदेशी मुद्रा कमाने का एक अच्छा माध्यम भी है।

डॉ. गुप्ता ने बताया कि बिहार में मखाना की खेती ने न सिर्फ मिथिला के किसानों की तकदीर बदल दी है बल्कि हजारों हेक्टेयर की जलजमाव वाली जमीन को भी उपजाऊ बना दिया है। उन्होंने कहा मखाना की खेती शुरुआत में बिहार के दरभंगा होती थी।  लेकिन अब  नई प्रजाति आने से अब इसका विस्तार क्षेत्र सहरसा, पूर्णिया, अररिया, कटिहार और किशनगंज होते हुए पश्चिम बंगाल के मालदा जिले के हरिश्रंद्रपुर तक फैल गया है। 

मखाना की पहली प्रजाति स्वर्ण वैदेही से बंपर उपज 

डॉ. गुप्ता ने बताय़ा  कि मखाना अनुसंधान केंद्र  द्वारा विकसित  मखाना की पहली प्रजाति स्वर्ण वैदेही की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें स्थानीय किस्मों  को अपेक्षा दो गुना से अधिक उत्पादन होता है। स्थानीय किस्म के बीज से प्रति हेक्टेयर 19.32 क्विंटल मखाना गुड़ी मिलती है। तो इससे 30 क्विंटल मिलती है मखाना लावा भी इस बीज से प्रति हेक्टेयर 12 क्विंटल तक उपज आती है, जबकि दूसरे लोकत बीज से 8 से साढ़े 8 क्विंटल उपज मिलती है। दूसरी ओर इसकी क्वालिटी बेहतर होने के साथ-साथ लावा  देखने में भी काफी आकर्षक होता है। उन्होंने कहा कि 4 नवंबर 2013 को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पटना स्थित पूर्वी भारतीय कृषि अनिसंधान संस्थान, पूर्वी क्षेत्र से इसे स्वीकृति मिली। राज्य सरकार ने तभी इसे बिहार के लिए रिलीज किया था। डॉ. गुप्ता के अनुसार यह प्रजाति बिहार समेत बंगाल, असम छत्तीसगढ़ के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है। इस वैरायटी को लगा कर उत्पादक प्रति हेक्टेयर ढाई लाख रुपए तक कमा सकते हैं। जबकि, लागत 50 से 75 हजार रुपए आती है।

मखाना की तालाब विधि से खेती

तालाब विधि मखाने की खेती की परंपरागत विधि है। जिसमें बीज की बुआई की ज़रूरत भी नहीं होती, क्योंकि पिछले साल के बचे बीज ही आगे काम आते हैं। इस विधि में 30 से 90 किलो स्वस्थ मखाना बीज दिसंबर-जनवरी महीने में तालाब में हाथों से छींटते हैं। 35-40 दिन बाद इसमें अंकुरण होने लगता है। फरवरी मार्च तक पौधे जल की ऊपरी सतह पर निकल आते हैं। इनके बीच एक मीटर की दूरी रखी जाती है।

खेतों में मखाना की खेती की तकनीक

इस विधि में पहले जनवरी -फरवरी में नर्सरी तैयार करते हैं फिर फरवरी के पहले सप्ताह से लेकर अप्रैल के तीसरे सप्ताह तक इसकी रोपाई 1 फीट पानी लगे खेत में की जाती है। लगभग दो महीने के बाद बैंगनी रंग का फूल खिलने लगता है। फिर 35-40 दिनों बाद, फल पूरी तरह से विकसित और परिपक्व हो जाता है। इसके सभी भाग कंटीले होते हैं। सितंबर अंत या अक्टूबर में कुशल कारीगरों की सहायता से, इसे निकलवा कर जमा कर लिया जाता है। इस विधि की खासियत ये है कि इसके साथ आप धान जैसी अंतर्वती फ़सलें भी ले सकते हैं।

नई तकनीक से समय और लागत दोनों की बचत

मखाना की खेती हर उस जगह हो सकती है, जहां हम पानी को रोक सकें। तालाब, गड्ढे खेत जलाशय है तो सबसे बेहतर, लेकिन खेत को भी चारों तरफ से यदि घेरने का उपाय हो तो उसमें पानी डालकर इसकी खेती कर सकते हैं। इसका बीज 15 मार्च से 30 अप्रैल बीच लगाया जा सकता है। उन्होंने बताया कि पहले मखाना के बीज की बुवाई और लावा निकालने का काम कठिन होता था। लेकिन अब इसके लिए अब मखाना कि खेती में हार्वेस्टिंग और पॉपिंग मशीनें काफी मददगार साबित हो रही हैं। इनकी मदद से काफी समय बचता है। अब कुछ नई तकनीकों और नए बीजों के आने से मधुबनी-दरभंगा में कुछ लोग साल में दो बार भी इसकी उपज ले रहे हैं। डॉ गुप्ता ने कहा कि, मखाने की खेती के साथ ही मछली  पालन कर  दोहरी कमाई भी कर सकते हैं।