घोषणाएं कई, पर्याप्त बजट नहीं! कैसे लगेगी कृषि क्षेत्र में लंबी छलांग?

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा वित्त वर्ष 2024-25 के लिए पेश किए गए बजट में कृषि उत्पादकता और जलवायु अनुकूलता को प्राथमिकता दी गई है। हालांकि, नई योजनाओं के लिए कोई बड़ा वित्तीय प्रावधान नहीं है। कृषि शोध और प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने पर भी जोर दिया गया है, लेकिन इसके लिए भी पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं कराए गए हैं।

घोषणाएं कई, पर्याप्त बजट नहीं! कैसे लगेगी कृषि क्षेत्र में लंबी छलांग?
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वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2024-25 का बजट पेश करते समय विकसित भारत की नौ प्राथमिकताओं में कृषि उत्पादकता और रिजिलिएंस को पहले स्थान पर रखा है। इसके तहत जिन कदमों को उठाया गया है वह विकसित भारत में कृषि की मजबूत भागीदारी सुनिश्चित कर पाएंगे, कहना मुश्किल है। क्योंकि जो कदम इस बजट में कृषि क्षेत्र के लिए उठाये गये हैं वह एक निरतंतरता को दर्शाते हैं, न कि एक बड़े बदलाव को। इन कदमों से कृषि और सहयोगी क्षेत्र के कायाकल्प की संभावना नजर नहीं आती है। वित्त मंत्री ने कृषि और सहयोगी क्षेत्र के लिए जो 1.52 लाख करोड़ रुपये का आवंटन किया है, वह आंशिक बढ़ोतरी ही है और जबकि नई योजनाओं और घोषणाओं के लिए कोई बड़ा आवंटन बजट में नहीं है।

बजट में वित्त मंत्री ने कहा है कि कृषि शोध की पूरी व्यवस्था की समीक्षा की जाएगी। इसके तहत उत्पादकता में वृद्धि और जलवायु अनुकूल किस्मों के शोध को प्राथमिकता दी जाएगी। वहीं, सार्वजनिक क्षेत्र के साथ ही निजी क्षेत्र को भी कृषि शोध के लिए फंड दिया जाएगा। लेकिन पूरे बजट में इस फंडिंग को लेकर स्पष्टता नहीं है। जहां तक कृषि शिक्षा और शोध विभाग के बजट की बात है तो इसके लिए 9941.09 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है जो पिछले साल 9876 करोड़ रुपये था। इस तरह बिना किसी नये और बड़े फंड के कृषि अनुसंधान का कायाकल्प कैसे होगा? इसको लेकर बजट में चुप्पी है। जबकि यह बात अहम है। कृषि शोध के सिस्टम में सुधार के साथ ही बड़े स्तर पर संसाधनों की जरूरत है।

बजट में जलवायु अनुकूल और अधिक उपज वाली 109 किस्मों किस्मों को जारी करने की बात कही गई है। किसी भी नई किस्म को विकसित करने में चार से पांच साल लगते हैं। इसलिए या तो यह किस्में पहले तैयार हैं और उनको रिलीज किया जाना है अन्यथा इन पर अगर शोध अब शुरू होता है परिणाम आने में लंबा समय लगेगा। इसमें घोषणा में भी स्पष्ट नहीं है। जबकि यह महत्वपूर्ण विषय है। देश में बेहतर उपज वाली की किस्में नहीं होने से अधिकांश फसलों की हमारी औसत उत्पादकता वैश्विक स्तर पर उच्चतम उत्पादकता के आधा से भी कम है।

अगले दो साल में एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने की बात कही है। लेकिन प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने की योजना के लिए बजट में 365 करोड़ रुपये का प्रावधान है जो पिछले साल 459 करोड़ रुपये था लेकिन वास्तव में केवल 100 करोड़ रुपये ही खर्च किये गये हैं। प्राकृतिक खेती और खाद्य सुरक्षा को लेकर देश में वैज्ञानिक समुदाय के बीच भी एकराय नहीं है। गत वर्षों में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के सरकार के प्रयासों का क्या परिणाम रहा है, इससे उत्पादन और किसानों की आय पर क्या असर पड़ा, इसकी जानकारी न बजट में दी गई और न ही कृषि मंत्रालय ने बताया है।

पिछले साल तीन साल में एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने की बात बजट में कही थी। वही बात इस बार भी दोहराई गई है। वित्त मंत्री दो साल पहले गंगा को दोनों तटों के की एक तय दूरी तक प्राकृतिक खेती की घोषणा कर चुकी है। बेहतर होगा कि आगे बढ़ने के पहले पुरानी घोषणाओं के नतीजों की समीक्षा की जाए।

टेक्नोलॉजी को लेकर जो कदम घोषित किये गये हैं वह अहम हैं। डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर (डीपीई) के उपयोग से कृषि में डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने के कुछ फायदे हो सकते हैं। लेकिन सवाल है कि डिजिटलीकरण की इस प्रक्रिया का मकसद क्या है? डिजिटल एग्रीकल्चर में किसानों के हित कैसे सुनिश्चित होंगे? अभी किसानों को हर सीजन में और अलग-अलग फसलों और योजनाओं के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराने पड़ते हैं। कई किसान योजनाओं का लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं। ऐसे में डेटा का दुरुपयोग ना हो और डिजिटल डिवाइड ना बढ़े, यह भी सुनिश्चित करना होगा।

कृषि कर्ज की व्यवस्था के तहत किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) को बढ़ाने देने के लिए केसीसी बनाने की प्रक्रिया को कुछ स्थानों पर सरल किया जाएगा। लेकिन ब्याज दरों में कोई बदलाव इस बजट में नहीं किया गया है।

खाद्य तेलों और दालों में आत्मनिर्भरता के लिए मिशन शुरू करने की घोषणा की गई है। लेकिन इस मोर्चे पर पिछले कुछ बरसों में एमएसपी में बढ़ोतरी करने और बफर स्टॉक बनाये जैसे कदमों का फायदा नहीं मिल सका है। उम्मीद है मिशन मोड में काम करना बेहतर साबित हो। हम जहां दालों में आयात पर निर्भर है वहीं खाद्य तेलों की करीब 62 फीसदी जरूरत आयात से पूरी करते हैं। इससे आपूर्ति व कीमत दोनों मोर्चों पर मुश्किलें खड़ी होती हैं और जो पैसा हमारे किसानों की जेब में जाना चाहिए, उसका फायदा विदेशी किसान उठाते हैं।

सब्जियों की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव के चलते भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार को महंगाई को लक्षित स्तर पर लाने में कामयाबी नहीं मिल रही है। टॉप जैसी स्कीम कामयाब नहीं रही है। ऐसे में सब्जियों के बेहतर उत्पादन, मार्केटिंग और भंडारण पर बजट की घोषणा सही दिशा में उठाया गया कदम है। लेकिन इसके लिए कितना बजट दिया है, यह नहीं बताया गया।

बजट में कृषि के सहयोगी क्षेत्रों डेयरी और फिशरीज के मामले में केवल झींगा उत्पादन और निर्यात को बढ़ावा देने के कदम उठाये गये हैं। इसका निर्यात 60 हजार करोड़ रुपये पर पहुंच गया है लेकिन देश में दूध के उत्पादन का मूल्य कुल खाद्यान्न से अधिक हो गया है, उसको लेकर कोई नया कदम नहीं है। किसानों की आय में बढ़ोतरी के लिए खाद्य प्रसंस्करण अहम है लेकिन इसका बजट भी पिछले साल से मामूली अधिक है और कोई नई योजना भी नहीं है।

किसानों को सहकारिता के फायदे के लिए नई नीति लाने की घोषणा की गई है। इसके लिए पिछली सरकार के दौरान सुरेश प्रभु की अध्यक्षता में समिति गठित की गई थी। इसके प्रावधानों के लिए नीति आने तक इंतजार करना होगा।

असल में इस साल बजट में कृषि और सहयोगी क्षेत्र के लिए कोई बड़े बदलाव या घोषणाएं नहीं हैं। कुछ छोटे और सांकेतिक कदम उठाने की बात है लेकिन उनके लिए भी बजट में कोई खास वित्तीय प्रावधान नहीं किया है। उर्वरक सब्सिडी पिछले साल से कम है क्योंकि वैश्विक बाजार में उर्वरकों की कीमतें कम हुई हैं। हम कह सकते हैं कि सरकार की विकसित भारत की नौ प्राथमिकताओं में कृषि पहले स्थान पर जरूर है लेकिन जिस तरह के संकेत आर्थिक सर्वे में दिये गये थे उस तरह के बड़े प्रावधान इस बजट में नहीं है। इस तरह कृषि क्षेत्र में बड़े सुधार का एक और मौका सरकार ने गंवा दिया। 

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